अच्छा लगा आपका आना - फुरशत मिले तो जरूर दो चार पंक्तिया पढें....हँसते रहिये, मुश्कुराते रहिये, और जीवन को इसी खूबसूरती से जीते रहिये...आपका....प्रभात

03 May 2009

मेरे दो मुह हैं

मेरे दो मुहं हैं
एक जो दिन के उजाले मैं दिखता है
दूसरा जब अँधेरा होता है
मेरे दो मुहं हैं।
उजाले मैं मेरा चेहरा साफ़ और चमकदार हैं
समाज मे इज्जत है
नाम और शोहरत है
लेकिन
अँधेरा होते ही, मैं भेदिये मैं तब्दील हो जाता हूँ,
मेरे भीटर छिपी प्यास जिन्दा हो जाती है,
और मैं शिकार की तलाश मे निकल पड़ता हूँ
मेरे दो चेहरे हैं।
उजाले मैं मे शरीफ और धार्मिक हूँ
समाज का जिम्मेदार और पड़ा लिखा नागरिक हूँ
लेकिन
अँधेरा होते ही, मैं सब भूल जाता हूँ
धर्म, जिम्मेदारी, padayei लिखायी
और तब्दील हो जाता हूँ, एक भेदिये मे
मेरे दो मुहं है।

प्रभात sardwal

1 comment:

Anonymous said...

samaj ke har safed posh insaan ki kahani kavita ke madhyam se kah dali apne, prabhat ji, baki ki bhi achi theen.
Sanjay