हर सुबह छत की मुंडेर पर
आ जाती है, एक नन्ही चिडिया
कुछ देर यहाँ वहां फुदकती है
और फिर उड़ जाती है, भोजन की खोज मे।
न जाने क्यूं
मगर एक आत्मीय नाता जुड़ गया है, उससे
अब मै भी कुछ अनाज के दाने डाल देता हूँ, छत पर
ताकि कुछ देर ज्यादा, फुदके वो मेरे घर की छत पर।
अच्छा लगता है, उसका फुदकना
ची-ची करना और कभी-कभी मेरी और
देखकर मुस्कराना
भूल जाता हूँ, कुछ पल
सारी स्वार्थपरता, सारी दुकानदारी।
प्रभात सर्द्वाल
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