मैं वैश्या हूँ
अपना जिस्म बेचती हूँ
पेट भरने के लिए
मैं यहाँ ख़ुद नही आयी
मैं यहाँ लाई गयी हूँ
और लाने वाले हैं
आप, आप और आप।
मैं भी एक घर की बेटी थी
आंखों में मेरी भी सपने थे
मैं भी तो पड़ना चाहती थी
कुछ बन दिखलाना चाहती थी
हाय रे किस्मत फूट गयी
थोडी खुशियाँ थी, वो भी रूठ गयी
बाजार मैं मैं फिर लाई गयी
बोली मेरी भी लगाई गयी
साare sapne काफूर हुए
oर हम अपनों से दूर हुए।
अब तो कम रौशनी मैं ही बीतती है जिंदगी
एक कस्टमर, दूसरा कस्टमर
yuhoon ही कटते हैं, दिन-रात
देखते हैं janglai मैं khade होकर
आप की बेटियों की बरात।
हाँ, मैं वैश्या हूँ
अपना जिस्म बेचती हूँ।
प्रभात सर्द्वाल .
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